बाई द वे : स्व. अंशुमन भार्गव की पुस्तक के लोकार्पण अवसर पर

Manoj Shrivastava

अंशुमन की पत्रकारिता अवसरसाधक नहीं थी। वे ईमानफ़रामोश तोताचश्म क़िस्म के पत्रकार नहीं थे। सबसे बड़ी बात यह है कि उनकी रिपोर्टिंग में वैमनस्य या द्वेष नहीं होता था। वे हीट ऑफ द मोमेंट की पत्रकारिता न करके साभ्यतिक चुनौतियों (civilisational challenges) से भिड़ते थे। उनकी कहानी जीवन की नश्वरताओं की कहानी है पर जिस तरह से मेघा जी और मयंक जी ने उनके लेखों का यह संग्रह प्रकाशित कर उनकी कलम की स्मृति को अमर बनाया है, प्रेरणास्पद है।

मैं सवा चार साल तक आयुक्त एवं सचिव जनसंपर्क रहा। तो सभी अख़बारों को पढ़ना मेरा काम था ही। हितवाद भी पढ़ता थाअंशुमन भार्गव को मैं यों पसंद करता थाकि मेरी पसंद नापसंद कई मामलों में उनके समान थी। कई बार हम किसी व्यक्तित्व में या तो अपनी प्रतिच्छवि देखते हैं या अपनी प्रतिपूर्ति। तो अंशुमन के बारे में मेरा शुरूआती पर्सेप्शन भी ऐसे ही तैयार हुआ।

अंशुमन को भी सुभाषचंद्र बोस बहुत पसन्द थे और मुझे भी भारत की स्वतंत्रता के असल की- फैक्टर वही लगते है रहे हैं। मैंने भी उन पर लिखा था और अंशुमन ने भी उन्हें अपने एक लेख में उन्हें ‘most formidable force and influential leader in the Indian Independence movement कहा था। लेकिन जैसे सुभाष मात्र 48 वर्ष की उम्र में हमारा साथ छोड़ गये, अंशुमन भी मात्र 47 वर्ष में हम सबसे दूर चला गया। वह जो पर्यावरण, स्वास्थ और समाज के मामले में सेंट्रल इंडिया की most formidable and influential Voice था। पत्रकारिता का सुभाष। इसलिए नहीं कि उसकी भाषा पर पकड़ अच्छी थी- वह तो थी ही-मुद्दों पर तथ्यों और तर्कों के साथ संघर्ष करने वाला। एक ऐसे दौर में जबकि यलो जर्नलिज़्म खूब चल रहा है, यह शख़्स ग्रीन जर्नलिज़्म करता था।

अंशुमन भार्गव उस तरह के पत्रकार रहे हैं जो ग्रीन पेन से लिखते थे। उनके लेखों को पढ़कर लगता था कि द ग्रास इज ग्रीनर दिस साइड ।भारत में पर्यावरण-पत्रकारिता की प्रथम पीढ़ी के अनिल अग्रवाल जी से मेरा परिचय रहा है। वे जब मैं कलेक्टर, झाबुआ था तब मेरे काम को देखने भी आये थे सुनीता नारायणन जी के साथ।बाद में लौटकर उन्होंने डाउन टु अर्थ में 16 पृष्ठ की कवर स्टोरी झाबुआ के environmental transformation पर की थी।वे ब्यूरोक्रेसी- बैशिंग के लिए जाने जाते थे पर झाबुआ से विदा लेते समय उन्होंने मुझे कहा था कि Manoj, you have rekindled my faith in bureaucracy. अनिल अग्रवाल, सुनीता नारायणन और डेरिल डिमोंटे ये पहली पीढ़ी के पर्यावरण-पत्रकारों की त्रयी थी।

उसके बाद की पीढ़ी में पर्यावरण के प्रति वह संचेतना मैंने अंशुमन भार्गव में देखी थी। डेरिल डिमोन्टे की तरह अंशुमन एडीटर-एनवायरनमेंटलिस्ट थे। वे टाइम्स आफ इंडिया के संडे रिव्यूर के एडीटर थे और इंडियन एक्सप्रेस व टाइम्स ऑफ इंडिया के रेसीडेन्ट एडीटर भी रहे। वहां वे जो काम कर रहे थे, अंशुमन वही काम हितवाद के एडीटर के रूप में कर रहे थे और गजब की पर्यावरण-प्रतिबद्धता के साथ कर रहे थे। आज अनिल अग्रवाल भी नहीं हैं, डेरिल भी नहीं हैं – पुरानी पीढ़ी के। पर दुख तो यह है कि अंशुमन भी नहीं है। बाद की पीढ़ी के होने के बाद भी। सबसे कम उमर में वे सेंट्रल इंडिया के किसी अंग्रेजी अखबार के रेसीडेन्ट एडिटर बन गये थे। उन्हें शायद सब कुछ इसीलिए जल्दी जल्दी पाना था कि उन्हें जल्दी जाना था।

पर नहीं, उनकी मृत्यु नहीं हुई है। उनके जो लेख इस पुस्तक में है वे हमारी उस सभ्यता को जगाने के लिए है, उस soul को, उस संवेदना को जो मर गई है और मुझे इब्सन के उस नाटक का शीर्षक याद आता है : when we dead awaken जब हम मृत जागते हैं। वे कोरोना काल में भारत के शहरों के प्रदूषण स्तर के कम हो जाने की जब रिपोर्टिंग कर रहे थे तो वे ‘माई राइट टु ब्रीथ’ – सांस लेने के अधिकार का उल्लेख कर रहे थे, तब नियति ने पता नहीं किस क्रूरता में स्वयं उनसे सांसें छीन लेने का तय कर लिया था।सांभर की नमकीन झील में माइग्रेटरी बर्ड्स जब मर रहीं थीं और अंशुमन उस पर इतनी वेदना से लिख रहे थे, कौन जानता था कि तब वे भी थोड़ा थोड़ा मर रहे थे। जब UNEP ने आसाम से नेपाल और भूटान तक फैले तीस हजार स्क्वेयर किलोमीटर के पैच को लश ग्रीन पैराडाइज़ में बदलने का massive bio-diversity प्रोजेक्ट हाथ में लिया तो अंशुमन की खुशी उनकी रिपोर्टिंग में देखते बनती थी। आसाम के मानस बायोस्फीयर रिज़र्व को कंचनजंघा बायोस्फीयर रिज़र्व से मिलाने वाला यह प्रोजेक्ट उन्होंने अपनी रिपोर्ट में इतनी प्रसन्नता से दर्ज किया था कि मुझे लगता है कि आज यदि कहीं उनकी आत्मा को लोकेट करने का कोई तरीका होता तो वे यहीं मिलते- मानस और कंचनजंघा के बीच। वे पर्यावरण पर जो ‘टेरर’ है, जो आतंक है, उसे भी उतनी ही अर्नेस्टनेस और चिन्ता के साथ बताते थे, जितना कि प्रकृति के fascination और करिश्मे को लगभग एक possessed व्यक्ति की तरह बताते थे।माइकेल फ्रोम , जो स्वयं दुनिया के एक बड़े पर्यावरणवादी पत्रकार हैं, का कहना था कि पर्यावरणीय पत्रकारिता के मैदान में उसी पत्रकार को उतरना चाहिए जिसके लिए इस पृथ्वी को बचाना एक तरह का पर्सनल पैशन हो।अंशुमन के पास था।हालांकि वे तथ्यों और आंकड़ों वाली आब्जेक्टिविटी रखते थे, फिर भी उनकी रिपोर्टिंग एक तरह की एडवोकेसी रिपोर्टिंग है। है रिपोर्टिंग ही, कोई नेचर राइटिंग नहीं है, और ध्यान रहे कि यह तब है जब आज तक भी कई बड़े बड़े अखबारों में कोई ग्रीन बीट नहीं है। अंशुमन तब पर्यावरण की वह पत्रकारिता कर गये कि यदि कोई युवा सिर्फ उनके बाई द वे कॉलम को ही निरन्तर मनोयोगपूर्वक पढ़ रहा होता तो वह UPSC मेन्स की जनरल स्टडीज़ में इकॉलाजी वाला हिस्सा आसानी से उत्तीर्ण कर सकता था। जैसे ‘द उतनी हिन्दू’ को पढ़कर ‘ साइंस एंड टेक्नोलाजी’ वाला हिस्सा इन दिनों किया जाता है। ‘द हिन्दू’ के पास तो संसाधनों की कमी नहीं है, पर ‘द हितवाद’को इस तरह की परपसिव पत्रकारिता का परचम लहराने में अंशुमन ने जिस तरह अपनी हरी स्याही से सक्षम बनाया, वह जर्नलिज़्म के प्रादेशिक इतिहास का एक अलग ही पैराडाइम है, एक अलग ही आयाम है।

प्रकृति और पर्यावरण, अंशुमन भार्गव के लेखन की पहचान है, परिभाषा नहीं है।या यों कहलें कि अंशुमन का बहिप्रकृति पर लिखना अंतः प्रकृति की उपेक्षा नहीं है।यानी बाहर का पर्यावरण औ‌द्योगिक प्रदूषण से बिगड़ा हुआ है और अंशुमन फ्लाई एश पॉल्युशन पर लिखते हैं तो अंदर का पर्यावरण भी यदि बिगड़ रहा है तो अंशुमन अपनी रिपोर्टिंग में उसको भी नहीं छोड़ते थे। उनका ड्रिकिंग प्रॉब्लम इन टीनेजर्स वाला लेख देखिये, उसके शब्द शब्द में कराह है। एक दूसरी रपट में वे पंजाब के हाल बताते हैं कि वहां दो तिहाई से ज्यादा पंजाबी घरों में परिवारों में एक न एक सदस्य नशे की जद में है, और कई बार मैं नियति की उस निष्ठुरता पर चकित रह जाता हूँ कि जिस पत्रकार ने हेल्थ के, हेल्थकेअर के इतने परिश्रम और प्रतिबद्धता के साथ मुद्दे उठाये उसी को कैंसर का शिकार होना था। जीवन जैसे एक आइसबर्ग की तरह है। जितना दिखता है उससे बहुत ज़्यादा अदृश्य है। वह जो पॉयज़न ऑन प्लेटर जैसी रिपोर्ट लिखता था कि कैसे हमारी थाली में – हमारे अन्न, सब्जियों, फलों में, कैसे चुपचाप किसी ज़हर ने जड़ जमा ली है; उसी के भीतर एक कैंसर कोबरे का फन फेन फैलाता जा रहा था। तब लगता है कि We are living in an unjust world.

मेघा जी और मयंक जी ने अंशुमन भार्गव के लेखों को यों पुस्तकाकार प्रकाशित करके उनके साथ जस्टिस ही किया है।


Manoj Shrivastava

Manoj Shrivastava is an author and a renowned scholar. He is an authority on Ancient Indian history, Culture, tradition, Philosophy of Sanatan Dharma. His commentary on Ramcharitmanas is widely acclaimed. Borne on the Madhya Pradesh cadre as an IAS officer, he held important positions, including the post of Commissioner Public Relations for many years. He retired as Additional Chief Secretary, Government of Madhya Pradesh.