केवल कृष्ण सेठी
गत बहत्तर वर्श से भारत नौटंकी पर जी रहा है और इस स्थिति का अन्त नज़र नहीं आ रहा है। जब भारत स्वतन्त्र हुआ तो न तो शैक्षिक स्थिति ठीक थी, न ही आर्थिक। खाद्यान्न के मामले में हम आत्म निर्भर नहीं थे और उद्योग तो केवल नाम भर का था। पर नारों की कमी नहीं थी। एक से बढ़ कर एक।
फिर चुनाव आये। शायद ही किसी को मालूम हो कि इस का कया महत्व है। पर एक उत्सव की तरह चुनाव हुये। अखबारों में ढेर सारे समाचार आये। राज्स्थान में, बिहार में, कर्नाटक में लोगा गाते बजाते हुए आये मतदान करने के लिये। पंजाब में 108 वर्श का आदमी आया वोट डालने के लिये। महाराष्ट्र में इतने दृष्टिहीन आये वोट देने के लिये। इत्यादि इत्यादि। वोट दिये और प्रसन्नचित हो गये। बस। अपनी नौटंकी पूरी हो गई।
पर एक समय की नौटंकी भी कोई नौटंकी हुई नौटंकी तो सतत चलती रहना चाहिये। सो नारे दिये गये और इन नारों के लिये जश्न मनाये गये। समाजवाद का नारा दिया गया। शोर मचा किन्तु व्यवहार मे इस के बारे में कुछ नहीं किया गया। भू सुधार की बात की गई। 1952 में कानून बनाये गये पर उस में इतने सुराख रखे गये कि वे भूमि का मालिक किसान को नहीं बना पाये। बड़े भूमिधारकों ने कई न्यास, मंदिर बना लिये और भूमि सब उन के नाम हो गई। पर बार-बार इन कानूनों के बारे में खूब कहा गया मानो इन को प्राप्त करने से समस्या समाप्त हो गई।
फिर आया ‘‘अधिक अन्न उपजाओ’’ का नारा। साथ ही वन महोत्सव। वार्षिक उत्सव – पर कभी नहीं देखा गया कि कितने पेड़ बचे। हमारे कलैक्टर ने एक बार कहा था ‘यदि पेड़ बच जायेगा तो अगली बार रौपन कहाॅं करेंगे’। नौटंकी ही तो करना थी, सो हो ही गई। राग दरबारी में श्रीलाल शुक्ल ने लिखा कि किसानों को कहा गया कि ‘कमबख्तो, अपने लिये नहीं तो देश के लिये अन्न उपजाओ’। इस में एक कार्यक्रम शुरू किया गया ‘गहन कृषि विकास ज़िला’। कुछ ज़िले चुने गये। क्यों चुने गये, यह तो स्पश्ट नहीं किया गया। शायद मुख्य मन्त्री का ज़िला था या किसी महत्वपूर्ण नेता का। उन में अतिरिक्त स्टाफ दिया गया। अतिरिक्त बजट भी दिया गया। रायपुर इस में से एक था। मेरी पुस्तक में आंकड़े दे कर बताया गया है कि प्रयास सारा रायपुर में किया गया और सफलता मिली पास के ज़िले बिलासपुर में। नौटंकी से काम नहीं चला। किसान की मेहनत रंग लाई।
जनसंख्या की समस्या थी। सो उस के लिये नारे तलाश किये गये, घढ़े गये। यह ज़माना था ‘दूसरा अभी नहीं, तीन के बाद कभी नहीं’। जब इस से काम नहीं चला और आबादी बढ़ती रही तो इसे बदला गया। कहा गया ‘हम दो, हमारे दो’। शायद आगे जा कर कहना होता ‘हम एक हो गये है, हमारा एक ही हो गा’। पर फिर कुछ ज़्यादती हो गई और नेताओं ने इस का नाम तथा काम बदल दिया। परिवार नियोजन के स्थान पर परविार कल्याण हो गया। पुराना नाम भुलाने के साथ उस का लक्ष्य भी भुला दिया गया।
और भी बहुत से नारे थे पर सम्भवतः सब से प्रसिद्ध था ‘गरीबी हटाओ’। कौन किस को कह रहा है गरीबी हटाने को, यह तो कभी स्पष्ट नहीं किया गया। किस की गरीबी हटी, पता नहीं चला। बस आंकड़े बदलते गयें। किसी ने 75 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे बता दिये तो किसी ने 22 प्रतिशत। पर यह कोई नहीं कह पाया कि गरीबी हटी कि नहीं। परिभाषायें बदलती गईं।
एक कार्यक्रम चला था ‘निर्मल ग्राम’। आज शायद ही किसी को याद हो कि यह कार्यक्रम क्या था और इस में क्या लक्ष्य थे तथा क्या हुआ था। अब तो स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत का ज़माना है। और वह भी मद्धम पड़ गया है।
छोड़िये इन्हें। नई ताज़ी नौटंकी पर आते हैं – ‘‘आकांक्षी ज़िले’’। यह नौटंकी है नीति आयोग की जो कि स्वयं ही एक नौटंकी है। 115 ज़िले चुने गये हैं। शेष 535 छोड़ दिये गये हैं। क्यों, किस लिये। क्या वह आकांक्षी नहीं हैं, प्रगति नहीं करना चाहते। इन 115 को चुनने का क्या आधार था स्पष्ट नहीं है। इन में करना क्या है, यह भी स्पष्ट नहीं हे। पाॅंच बातें चुनी गई हैं जिन पर काम होना है। यह हैं – स्वास्थ्य और पोषण; शिक्षा; आधारभूत सेवायें; वित्तीय समावेशण, कौशल विकास; और कृषि। इन छह विषयो के लिये 77 संकेतक चुने गये हैं। इन के बारे में जानकारी त्वरति समय में, रियल टाईम में, एकत्र की जायेगी। फिर?
कहना है कि इन 115 ज़िलों की आपस में प्रतियोगिता होगी। हर ज़िला अपने राज्य में तथा फिर पूरे देश में प्रथम स्थान पाने के लिये प्रयास करेगा। शेष 535 ज़िले शायद अगली सरकार की प्रतीक्षा करेंगे कि उन में भी प्रगति हो सके। तब तक उन्हें न स्वास्थ्य से मतलब है न पोशण से, न किसी और बात से।
इन ज़िलों के ज़िलाध्यक्षों को विशेष प्रशिक्षण देने की बात कही जा रही है। उन्हें प्रेरणा देने के लिये सूत्र खोजें जायेंगे। किसी न कहा कि उन का स्थानान्तर हो गया तो शायद वह यह प्रेरणा सूत्र किसी फाईल में पिरो कर अपने उत्तराधिकारी को दे जायेंगे। यह तो सरकार में मान्य ही होता है कि जब ज़िलाध्यक्ष को प्रेरित कर दिया गया तो नीचे के सब अधिकारी, कर्मचारी तो प्रेरित हो ही गये। अब योजना बनी है तो समितियां तो बनेंगी ही। अपर सचिव, संयुक्त सचिव को प्रभारी बनाया जायेगा। मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक समिति बनेगी, ज़िलों में अलग-अलग।
वर्श 2022 तक यह सभी ज़िले प्रथम स्थान पर आ जायेंगे, ऐसी अपेक्षा है। द्वितीय स्थान का कहीं ज़िकर नहीं किया गया है।
क्या इन ज़िलों को अतिरिक्त संसाधन – वित्तीय, मानव, उपकरण – उपलब्ध करायें जायेंगे। योजना इस पर मौन है। प्रेरणा ही काफी होगी, शायद यह विश्वास है। शेष बातें तो गौण हैं।
कब आरम्भ होगी यह योजना। इस की तिथि भी अभी घोषित नहीं हुई है पर जब शुभारम्भ होगा तो ज़ोर शोर से होगा। आखिर नौटंकी तो है ही। इस में शोर तो होना ही चाहिये।

लेखक, श्री केवल कृष्णा सेठी ने, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के रूप में अनेक उच्च पदों पर रहते हुए स्वाधीनता पश्चात राष्ट्र निर्माण की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे मणिपुर के मुख्य सचिव व मध्यप्रदेश राजस्व मंडल के अध्यक्ष रहे। भारतीय प्रशासनिक सेवा से सेवानिवृत्ति उपरांत, श्री सेठी राष्ट्रीय भाषाई अल्पसंख्यक आयुक्त जैसे महत्वपूर्ण संवैधानिक पद पर भी आसीन रहे।
